एचआईवी, अधिकार और समावेशन: भारत में बदलाव की यात्रा
भारत में स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुरक्षा तक पहुँच की नई राह
क़ानूनी सुधारों की शुरुआत और सामुदायिक आवाज़ेंजमीनी अनुभवों से नीतिगत बदलाव
2017 और 2019 के ऐतिहासिक अधिनियम
धरातल पर अमल और समावेशी शासन
मौजूदा चुनौतियाँ और आगे की दिशा
नई दिल्ली, 6 दिसंबर 2025. लम्बे समय तक हाशिये पर पड़े समुदाय (marginalized communities)—एचआईवी के साथ जी रहे लोग (People living with HIV), ट्रांसजैंडर समुदाय और अन्य समूह—आज भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था में अपनी जगह बनाते दिखाई देते हैं। सहायता केन्द्रों से लेकर ऑनलाइन पंजीकरण अभियानों तक, एक ऐसी प्रक्रिया विकसित हुई है जिसने लोगों को न सिर्फ इलाज, बल्कि अधिकारों और न्याय तक भी पहुँच दिलाई है।यह बदलाव अचानक ही नहीं आ गया। 2009 से शुरू हुए संवादों में जब वकील, कार्यकर्ता और समुदाय से जुड़े लोग एक ही मेज़ पर बैठे, तब सवाल उठे कि क्यों इतने लोग अब भी व्यवस्था के बाहर हैं? इन सवालों ने न सिर्फ बहस को एक नया मोड़ दिया, बल्कि तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में क़ानूनी सहायता केन्द्रों को खोलने का रास्ता भी खोला।
दूर तक गया इन संवादों का असर
इन संवादों का असर दूर तक गया। 2017 में एचआईवी और एड्स (रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम (The Human Immunodeficiency Virus and Acquired Immune Deficiency Syndrome (Prevention and Control) Act, 2017) और 2019 में ट्रांसजैंडर व्यक्तियों (अधिकार संरक्षण) अधिनियम (The Transgender Persons (Protection of Rights) Act, 2019 ) लागू हुए—दो ऐसे क़ानून, जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र में समावेशन की नई इबारत लिखी।जब क़ानून ज़मीन पर उतरे तो असर साफ दिखा—काग़ज़ी अड़चनें घटीं, सेवाएँ सरल हुईं और लोग आत्मविश्वास के साथ योजनाओं का लाभ लेने लगे।
फिर भी राह पूरी नहीं हुई है। मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा और समुदाय-केंद्रित प्रणालियों के निर्माण की चुनौतियाँ बनी हुई हैं। यही वजह है कि UNDP, NACO और प्रदेश सरकारें आज भी मिलकर काम कर रही हैं, ताकि कोई भी पीछे न छूटे।
भारत की यह यात्रा बताती है कि जब स्वास्थ्य, अधिकार और सम्मान एक साथ चलते हैं, तब समाज सच में बदलता है।
पढ़िए संयुक्त राष्ट्र समाचार की यह खबर....
एचआईवी, अधिकार और समावेशन, भारत में बदलाव की यात्रा
5 दिसंबर 2025 मानवाधिकारभारत में लम्बे समय तक ज़रूरी स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा सेवाओं से दूर रहे लोग भी अब, सहायता केन्द्रों, सामुदायिक अर्ध-न्यायिक (para-legal) केन्द्रों और ऑनलाइन पंजीकरण अभियानों के ज़रिये, लाभान्वित हो रहे हैं. इसे सम्भव बनाने में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO), प्रदेश सरकारों और UNDP जैसे साझीदारों की मदद का बड़ा हाथ है जोकि एचआईवी से निपटने में भारत के प्रयासों को मज़बूत बना रही है.
दुनिया में क़ानूनी सुधार की चर्चा शुरू होने से कई साल पहले ही, भारत में कठिन सवाल पूछे जाने लगे थे. वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) और NACO के सहयोग से वकील, कार्यकर्ता, डॉक्टर और एचआईवी के साथ जी रहे लोग, अलग-अलग राज्यों में एक साथ बैठे.
सवाल स्पष्ट थे - क्यों अब भी इतने लोग व्यवस्था में नज़रअन्दाज़ हो रहे हैं? और जो क़ानून, सुरक्षा देने के लिए बने थे, वो व्यवहार में कलंक और भेदभाव को कैसे बढ़ा रहे हैं?
ये शुरुआती सम्वाद एक अहम मोड़ साबित हुए. UNDP ने तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में क़ानूनी सहायता केन्द्र स्थापित करने में मदद की, अर्ध-न्यायिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दिया, और अधिकारों की जानकारी को सीधे स्वास्थ्य कार्यक्रमों से जोड़ा.
जो लोग भेदभाव का सामना अकेले करते थे, अब उनके पास साथी, परामर्श और न्याय तक पहुँचने के रास्ते मौजूद थे. यह मॉडल जल्द ही अन्य राज्यों के लिए उदाहरण बन गया. इसने साबित किया कि जब न्याय को स्वास्थ्य व्यवस्था का हिस्सा बनाया जाता है, तो सेवाओं तक पहुँच अपने आप बेहतर होती जाती है.
स्थानीय आवाज़ों से क्षेत्रीय नेतृत्व तक
दो साल बाद भारत ने यही सीख बैंकॉक में हुए एशिया-प्रशान्त क्षेत्रीय सम्वाद (Global Commission on HIV and the Law) में पेश की. उसके बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर भी इन्हीं मुद्दों पर बातचीत जारी रही.इन सम्वादों ने उस बड़े क्षेत्रीय आन्दोलन में भारत की आवाज़ को मज़बूत किया, जो स्वास्थ्य को किसी ख़ास वर्ग का विशेषाधिकार नहीं, बल्कि बुनियादी मानव अधिकार मानता है.
2013 तक भारत से उठने वाली आवाज़ें क्षेत्रीय चर्चा के केन्द्र में आ चुकी थीं, जिनमें एचआईवी के साथ जी रहे लोग, ट्रांसजैंडर नेता, अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मी और स्थानीय समुदाय के प्रतिनिधि शामिल थे.
उनकी कहानियों ने स्पष्ट दिखाया कि क़ानून एवं नीतियाँ या तो लोगों के लिए दरवाज़े खोल सकती हैं, या उन्हें पूरी तरह बन्द कर सकती हैं.
असल ज़िन्दगी में बदलाव
तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में एचआईवी के साथ जी रही महिलाओं ने बताया कि अस्पतालों के दरवाज़े उनके लिए अधिकतर बन्द ही रहते हैं. पुरुषों ने कहा कि जब भी उन्होंने एचआईवी होने की जानकारी दी, उन्हें अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ा.ट्रांसजैंडर महिलाओं ने बताया कि उनके पहचान पत्र उनकी लैगिंक पहचान से मेल नहीं खाते, और जब वो इलाज या सहायता के लिए जाती हैं तो उन्हें चुप्पी, सवालों व अनदेखी का सामना करना पड़ता है.
हर कहानी एक सबूत बन गई. हर गवाही, नीति बदलने की एक दलील. इन्हीं अनुभवों और वर्षों की पैरोकारी का नतीजा था, एचआईवी और एड्स (रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 2017 – भारत का पहला क़ानून, जिसने एचआईवी के साथ जी रहे लोगों के अधिकारों को क़ानूनी सुरक्षा दी.
इसके दो साल बाद, 2019 में, ट्रांसजैंडर व्यक्तियों (अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 आया, जिसने ट्रांसजैंडर समुदाय के अधिकारों और सम्मान को मज़बूती बनाने की दिशा में एक अहम क़दम रखा.
धरातल पर लागू
क़ानून बन जाने के बाद असली बदलाव तब दिखा, जब उन्हें ज़मीन पर लागू किया जाने लगा. भारत में समावेशी शासन को मज़बूत बनाने की इस यात्रा में UNDP एक अहम साझीदार रहा है.UNDP, सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम लागू कराने में सहयोग से लेकर तीसरे लिंग की क़ानूनी मान्यता आगे बढ़ाने तक, और एचआईवी व एड्स (रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 2017 जैसे अधिकार-आधारित क़ानून के निर्माण में समर्थन देकर, लगातार इस प्रक्रिया के साथ जुड़ा रहा है.
यह अधिनियम एचआईवी के साथ जी रहे लोगों के ख़िलाफ़ भेदभाव पर रोक लगाने वाले दुनिया के शुरुआती क़ानूनों में से एक है.
इसी तरह ट्रांसजैंडर व्यक्तियों (अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 क़ानूनी समावेशन की दिशा में एक बड़ा क़दम था. इसने ट्रांसजैंडर समुदाय के अधिकारों को औपचारिक मान्यता और क़ानूनी सुरक्षा दी.
UNDP ने प्रदेश सरकारों के साथ मिलकर एचआईवी से जुड़ी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को सरल व अधिक समावेशी बनाया.
अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया गया ताकि काग़ज़ी कार्यवाही कम हो, स्वास्थ्य सेवाओं को कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ा जा सके और ट्रांसजैंडर समुदाय व अन्य प्रमुख समूहों की ज़रूरतों को ध्यान में रखा जा सके.
इसका असर जल्द ही नज़र आया – इलाज करा रही महिलाएँ अब बिना डर के योजनाओं का लाभ ले पा रही हैं और ट्रांसजैंडर व्यक्ति आवास जैसी सहायता के लिए आवेदन कर पा रहे हैं.
मूल्यांकन ने भी साबित किया कि जब प्रणालियाँ समावेशी होती हैं, तो इलाज जारी रखने की दर बढ़ती है व भेदभाव कम होता है.
मौजूदा चुनौतियाँ
फिर भी क़ानून और ज़मीनी हक़ीक़त के बीच कुछ दूरी बनी हुई है. इसी वजह से UNDP, राष्ट्रीय और प्रदेश सरकारों के साथ मिलकर क्षमता-विकास, सामुदायिक सहभागिता और मज़बूत प्रणालियों पर काम जारी रखे हुए है, ताकि कोई भी पीछे नहीं छूटे.कोविड-19 महामारी के दौरान मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा पहले से कहीं ज़्यादा सामने आया.
UNDP ने, राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान (NIMHANS) के साथ मिलकर, LGBTQIA+ समुदाय के लिए ऐसा मानसिक स्वास्थ्य मॉडल विकसित किया, जो व्यक्ति को केवल “मरीज़” नहीं, बल्कि एक इनसान के रूप में देखता है – उसकी पहचान, अनुभव और गरिमा के साथ.



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