हिमाचल प्रदेश: भारत की सेब टोकरी और उसकी आधुनिक खेती की कहानी | The story of India's apple basket and its modern farming
हिमाचल प्रदेश: सेब उत्पादन का गौरवशाली इतिहास
सेब की खेती में आई चुनौतियाँ और उनका समाधान
- विश्व बैंक परियोजना: सेब किसानों के लिए वरदान
- निचले क्षेत्रों में सेब की खेती का विस्तार
- उन्नत तकनीकों से हिमाचल में फल उत्पादन में बढ़ोतरी
- सेब के बागानों से बदलती किसानों की जिंदगी
- सेब उत्पादन में अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भूमिका
- डिजिटल तकनीक और ई-मार्केटप्लेस का प्रभाव
हिमाचल प्रदेश, जिसे "भारत की सेब टोकरी" कहा जाता है, सेब उत्पादन में अपनी परंपरा और आधुनिक तकनीकों के समन्वय से नई ऊंचाइयों पर पहुंच रहा है। संयुक्त राष्ट्र समाचार की इस खबर से जानिए कैसे विश्व बैंक की परियोजना, उन्नत तकनीक, और स्थानीय प्रयासों ने किसानों की आय और जीवनस्तर को बेहतर बनाया।
The story of India's apple basket and its modern farming |
भारत: हिमाचल प्रदेश में सेब के बाग़ों की बहार
साफ़, ताज़ा पहाड़ी हवा से भरपूर, भारत के उत्तर में स्थित हिमाचल प्रदेश, देश की "सेब टोकरी" के नाम से मशहूर है.
युवा सेब किसान दक्ष चौहान बताते हैं, "सेब हमारी आजीविका है. मेरे दादा के समय, इस इलाक़े में बहुत ग़रीबी थी. सेब की खेती से हमारी ज़िन्दगी बेहतर हुई है."
हिमाचल प्रदेश में लगभग एक सदी पहले सेब की खेती शुरू हुई थी और तब से यह राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गई है.
प्रदेश की 6.15 लाख हैक्टेयर कृषि भूमि में से लगभग दो लाख हैक्टेयर पर, फलों के बाग़ हैं, जिनमें से आधे क्षेत्र (लगभग 1.15 लाख हैक्टेयर) पर सेब की खेती होती है.
हालाँकि, समय के साथ सेब की खेती को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. मौसम की अनिश्चितता, पुराने और कम फल देने वाले बाग़, खेती के पारम्परिक तरीक़े, और सिंचाई सुविधाओं की कमी के कारण किसानों, विशेषकर छोटे भूमि धारकों की आय प्रभावित हुई है.
इसके अलावा, उपभोक्ता सेब की आयातित क़िस्मों को प्राथमिकता देने लगे, जिससे छोटे किसानों को बार-बार घाटे होने लगे.
अनूठी पहल
2016 में हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक बार फिर नवाचारी दृष्टिकोण अपनाया, ठीक उसी तरह जिस तरह पहले सेब की खेती को इन हरे-भरे पहाड़ों पर लाया गया था. राज्य ने भारत में सेब की खेती को एक सशक्त क्षेत्र के रूप में पुनर्स्थापित करने के लिए क़दम उठाए हैं.
विश्व बैंक की हिमाचल प्रदेश बाग़वानी विकास परियोजना के सहयोग से, प्रदेश में किसानों को फलों की खेती के तरीक़े बदलने में मदद की गई.
इसमें पारम्परिक तरीक़ों को आधुनिक तकनीकों से जोड़ते हुए नई पौध सामग्री, आधुनिक खेती की तकनीक व भंडारण, प्रसंस्करण तथा विपणन सुविधाएँ पर ध्यान केन्द्रित किया गया, ताकि किसान अपनी उपज के लिएबेहतर क़ीमतें प्राप्त कर सकें.
छह साल बाद, इसके परिणाम सामने आने लगे.
इस परियोजना के तहत छह ज़िलों में 30 किसान उत्पादक कम्पनियाँ (Farmer Producer Companies) स्थापित की गईं.
कुल 12 हज़ार 400 किसानों की सदस्यता वाली इन कम्पनियों में 27% महिलाएँ हैं. इन किसान उत्पादक कम्पनियाँ के ज़रिए, सेबों की ग्रेडिंग व पैकेजिंग, फलों का प्रसंस्करण, व्यापार तथा कोल्ड स्टोरेज जैसी गतिविधियाँ संचालित की जाती हैं.
2022-23 में इन कम्पनियों का कारोबार लगभग 6 करोड़ रुपए तक तक पहुँच चुका है.
निचले क्षेत्रों में सेब की खेती का विस्तार
परम्परागत रूप से हिमाचल प्रदेश के निचले क्षेत्रों में सब्ज़ियों की खेती की जाती रही है. लेकिन अब, गर्म जलवायु के लिए उपयुक्त सेब की नई क़िस्में पेश की गई हैं.
सोलन ज़िले के कोठी द्वार गाँव के 47 वर्षीय किसान राजेश कुमार ने सब्ज़ियों की खेती छोड़कर, ‘low-chill’ सेबों की नई क़िस्म की बाग़वानी शुरू की.
उन्होंने बताया, “मैंने अपने पिता के पद चिन्हों पर चलते हुए एक एकड़ ज़मीन पर टमाटर और सब्ज़ियाँ उगाना शुरू किया था. सब्ज़ियों से होने वाली आय परिवार का गुज़ारा करने के लिए भी मुश्किल से ही काफ़ी होती थी."
"हमें हर साल कीटनाशकों और फफूंदनाशकों पर बड़ी धनराशि ख़र्च करनी पड़ती थी. सिंचाई भी एक बड़ी समस्या थी.”
राजेश को, इन चुनौतियों के कारण, एक साल में प्रति बीघा (लगभग चौथाई एकड़) सिर्फ़ 50 हज़ार से 60 हज़ार रुपए की आमदनी ही हो पाती थी.
लेकिन अब सेब के बाग़ानों से उनकी आय आठ गुना बढ़कर, प्रति बीघा 4-5 लाख रुपए तक पहुँच गई है. राजेश कहते हैं, "पिछले पाँच वर्षों में मैंने सेब बेचकर इतनी धनराशि अर्जित कर ली है, जितनी टमाटर बेचकर पंद्रह वर्षों में अर्जित की थी.”
राजेश को उम्मीद है कि अगर मौसम अनुकूल रहा तो आने वाले वर्षों में उनकी आय प्रति बीघा 14-15 लाख रुपए तक पहुँच जाएगी. यह उनकी मौजूदा आय का तीन गुना होगी.
उच्च घनत्व वाली खेती
सेब की नई क़िस्मों से, उच्च घनत्व वाली खेती भी सम्भव होती है. चूँकि इन पेड़ों की ऊँचाई 8-10 फीट तक सीमित रहती है और इनकी शाखाएँ पहले की क़िस्मों की तरह चौड़ी नहीं फैलतीं, इसलिए ज़मीन के एक ही टुकड़े पर अधिक पेड़ लगाए जा सकते हैं.
सोलन ज़िले के धारो की धार गाँव के करण सिंह बताते हैं, "पहले सेब की खेती से मुझे कुछ ख़ास आमदनी नहीं होती थी. लेकिन अब मेरी एक बीघा जमीन पर अर्ध-बौनी क़िस्म के लगभग 150 पेड़ लगाना सम्भव हो गया हूँ, जबकि पुरानी क़िस्मों के केवल 20-30 पेड़ ही लगाए जा सकते थे."
तेज़ और अधिक उपज
नई क़िस्में फल भी जल्दी देना शुरू कर देती हैं. करण सिंह बताते हैं, "ये पेड़ 3-4 साल में फल देने लगते हैं, जबकि पारम्परिक क़िस्मों में 6-7 साल लगते थे." इससे किसानों को जल्दी लाभ मिलना शुरू हो जाता है.
इसके अलावा, इन पेड़ों से अधिक उपज प्राप्त होती है. "प्रत्येक पेड़ से औसतन 15-20 किलो फल मिल जाता है." आज, करण को सालाना लगभग 10-11 लाख रुपए की औसत अमदनी हो जाती है.
सिंचाई की समस्या का समाधान
परियोजना के तहत किसानों को एक ही जलग्रहण क्षेत्र में समूहों के रूप में संगठित किया गया. इन समूहों को, पहाड़ियों का पानी नव-निर्मित टैंकों में भंडार करके, साल भर सिंचाई के लिए जल उपलब्ध करवाया गया. बारिश पर निर्भर फ़सलों और मौसमी जल संसाधनों के कारण यह सुविधा किसानों के लिए राहत लेकर आई.
इसके अलावा, खेतों में ख़राब जल निकासी के कारण जलभराव एक बड़ी समस्या थी, जिससे मिट्टी के मूल्यवान पोषक तत्व नष्ट हो जाते थे और पेड़ कीटों और वे बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते थे.
इस समस्या को पहाड़ी क्षेत्रों के अनुकूल सिंचाई तकनीकों को अपनाकर और किसानों को ड्रिप सिंचाई के उपयोग का प्रशिक्षण देकर हल किया गया.
परियोजना के तहत, अधिक भूमि को खेती के लिए उपयुक्त बनाने के लिए लगभग 260 छोटी सिंचाई सुविधाएँ निर्मित की गईं.
कुल मिलाकर, अक्टूबर 2024 में परियोजना के समाप्त होने तक, सिंचाई सुविधाओं के कारण 3 हज़ार 100 हैक्टेयर अतिरिक्त भूमि पर सेब की खेती करना सम्भव हुआ और 10 हज़ार 900 हैक्टेयर मौजूदा बाग़ों को पुनर्बहाल किया गया है.
सेब की बिक्री को बढ़ावा
कटाई के बाद होने वाला नुक़सान घटाने और किसानों को उनकी उपज के लिए बेहतर दाम सुनिश्चित करने के लिए तीन नए फल-बाज़ार बनाए गए और छह अन्य बाजारों का नवीनीकरण किया गया.
इन बाज़ारों ने देश भर के किसानों और व्यापारियों को एक मंच पर आने का मौक़ा दिया. 2024-25 में, इन बाज़ारों ने लगभग 10 करोड़ 40 लाख रुपए का राजस्व उत्पन्न किया है.
सरकार के ‘ई-मार्केटप्लेस ऐप’ ने भी किसानों को विभिन्न क्षेत्रों में मिलने वाले दामों की जानकारी प्राप्त करना आसान बना दिया.
इस सुविधा का लाभ उठाते हुए करण और राजेश जैसे किसान, अपनी फ़सलें, राजस्थान के जयपुर जैसे दूरस्थ स्थानों तक बेचने में सक्षम हुए.
हिमाचल प्रदेश बाग़वानी परियोजना के निदेशक सुदेश कुमार मोख्टा कहते हैं, "सेब हमारी विरासत हैं और हमारे लोगों की आजीविका का केन्द्र हैं. उत्पादक एवं पर्यावरणीय रूप से स्थाई सेब की खेती, वर्तमान एवं भविष्य में हमारे किसानों की समृद्धि की आधारशिला बनेगी."
अन्तरराष्ट्रीय ज्ञान का लाभ
परियोजना के तहत, पौधारोपण सामग्री को उन्नत बनाने और स्थानीय किसानों को नवीनतम ज्ञान प्रदान करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय विशेषज्ञों की मदद भी ली गई. न्यूज़ीलैंड और नैदरलैंड्स के विशेषज्ञों ने क्षेत्र की मिट्टी और भू-आकृति का मूल्यांकन करके किसानों को महत्वपूर्ण सुझाव दिए.
करण ने इस परियोजना से बहुत कुछ सीखा, जिससे उन्हें ज़मीन पर बड़ा बदलाव लाने में मदद मिली. उन्होंने बताया, "विशेषज्ञों ने हमें पेड़ लगाने, छंटाई करने, उचित पोषण देने और सही तरीक़े से सिंचाई करने का प्रशिक्षण दिया."
हिमाचल प्रदेश के किसानों को नवीनतम तकनीकों में प्रशिक्षित करने वाले न्यूज़ीलैंड के पौध एवं खाद्य शोध संस्थान के वैज्ञानिक, डेविड मैनक्टेलो कहते हैं, "जो हमें न्यूज़ीलैंड में सीखने में बीस साल लगे, उसे हिमाचल प्रदेश में कुछ ही वर्षों में लागू किया जा सका."
उन्होंने प्रदेश के किसानों की प्रगतिशीलता की सराहना की.
नौणी स्थित डॉक्टर वाई एस परमार बाग़वानी और वानिकी विश्वविद्यालय ने इन नई तकनीकों का विस्तार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
प्रदर्शन भूखंडों की स्थापना की गई, जहाँ प्रदेश की मिट्टी व मौसम के अनुकूल खेती की तकनीकें विकसित की गईं और किसानों को उनका उपयोग करना सिखाया गया. कुल मिलाकर, इस परियोजना के तहत 90 हज़ार से अधिक किसानों को प्रशिक्षित किया गया.
विश्व बैंक के परियोजना प्रभारी बेकोद शम्सिव कहते हैं, "सेब उत्पादन को बढ़ावा देने में हिमाचल प्रदेश के अग्रणी कार्यों से न केवल इसके किसानों की वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों को लाभ होगा, बल्कि यह देश के अन्य हिस्सों के लिए भी मार्ग प्रशस्त करेगा."
उन्होंने कहा कि भारत के विविध भू-भाग और जलवायु परिस्थितियों को देखते हुए अन्य प्रदेशों में भी इस योजना का विस्तार किए जाने की बड़ी सम्भावना है. इससे न केवल भारतीय बाज़ार के लिए, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय निर्यात के लिए भी फलों का उत्पादन बढ़ाया जा सकेगा.
आज, भारत का पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश, अन्य बाग़वानी परम्पराओं वाले प्रदेशों के लिए एक आदर्श स्थापित करते हुए, आधुनिक फल उत्पादन में अग्रणी बनकर उभरा है.
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