ग़ाज़ा की जमीं पर संघर्ष की कहानियां: इंसानियत, दर्द और उम्मीद का दस्तावेज़ | Louise Wateridge UN News Champion

ग़ाज़ा: संघर्ष का चेहरा लुईस वॉटरिज

  • ग़ाज़ा के हालात का वर्णन और वहां की ज़िंदगी कैसे असंभव हालातों में गुजर रही है।

लुईस वॉटरिज का अनुभव: युद्ध और मानवता की कहानी

  • लुईस वॉटरिज द्वारा साझा किए गए घटनाक्रम, मानवीय सहायताकर्मियों का योगदान और उनके संघर्ष।

ग़ाज़ा में मानवीय संकट: कहानियां जो हृदय को झकझोर देंगी

  • बेबी समा के जन्म की कहानी।
  • बच्चों और परिवारों के संघर्ष की तस्वीरें।
  • युद्ध के दौरान अमानवीय हालात।
  • क्या दुनिया का ध्यान ग़ाज़ा पर है?
  • ग़ाज़ा के संघर्ष की अनदेखी, लोगों की चीखें और मदद की पुकार।
  • अभी भी बचा है उम्मीद का एक सिरा
  • संघर्ष के बीच उम्मीद और इंसानियत के चमत्कारी पल।

ग़ाज़ा में युद्ध के बीच लोगों के जीवन, मानवीय संकट और संघर्ष की हृदयविदारक कहानियां। संयुक्त राष्ट्र समाचार की इस खबर से जानिए लुईस वॉटरिज और उनकी टीम के अनुभव, संघर्षरत परिवारों की चीखें, और बेबी समा की उम्मीदों की कहानी...

Louise Wateridge UN News Champion: ‘Are you keeping up with the death?’ The grinding toll of war in Gaza
Louise Wateridge UN News Champion: ‘Are you keeping up with the death?’ The grinding toll of war in Gaza


यूएन न्यूज़ चैम्पियन: हर दिन मौत से सामना, युद्ध की विभीषिका में झुलसता ग़ाज़ा

युद्ध एवं मानवीय संकट के दंश को झेलने वाला एक और साल अपने समापन की ओर अग्रसर है. यूएन न्यूज़ इस पड़ाव पर, मानवतावादी चुनौतियों के अग्रिम मोर्चों पर डटे यूएन मानवीय सहायताकर्मियों के असाधारण कार्यों को साझा कर रहा है. इस प्रयास में हमारी पहली यूएन न्यूज़ चैम्पियन हैं, फ़लस्तीनी शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र एजेंसी (UNRWA) में आपात मामलों के लिए वरिष्ठ अधिकारी, लुईस वॉटरिज. संचार व जानकारी पहुँचाने में अपनी विशेषज्ञता के ज़रिए, लुईस ने न केवल यूएन न्यूज़ तक महत्वपूर्ण ख़बरें पहुँचाईं हैं, बल्कि यह भी दर्शाया कि दुनिया भर में लाखों-करोड़ों ज़रूरतमन्दों के लिए संयुक्त राष्ट्र की भूमिका कितनीमायने रखती है.

“मेरी टीम और मेरे दोस्तों की बदौलत ही, मैं आज यहाँ खड़ी हुई हूँ.

मेरी द्वारा कही गई बातें न केवल उनके प्रति मेरा आभार व्यक्त करेगी, बल्कि उन ग़ाज़ावासियों के लिए भी, जिनसे मुलाक़ात होना मैं अपना सौभाग्य मानती हूँ. जो ग़ाज़ा से वाक़िफ़ हैं, वो समझ जाएँगे कि मैं क्या कहना चाह रही हूँ. वो ग़ाज़ा, जिसका पहले अस्तित्व हुआ करता था...उस अकल्पनीय तबाही से पहले, जिसकी अब केवल धूमिल यादें ही बची हैं.  

इस क्रूर युद्ध के पहले कुछ महीनों की धुँधली यादों में हैं, फ़ोन पर दोस्तों के भावनात्मक अलविदा सन्देश, जिन्हें लगता था कि वो सुबह तक शायद ही बमबारी से बच पाएँ. हताशा भरे इन सन्देशों के बाद अचानक ख़ामोशी छा गई, जो दिल चीरने वाली थी. 

मोना के वो शब्द मुझे आज भी झकझोर देते हैं: “अगर हम फिर नहीं मिल पाए तो मुझे याद करना, मेरे बेटे को याद रखना.” जीवित रहने की जद्दोजहद में लोगों ने न केवल एक-दूसरे से व अपने परिवार से सम्पर्क तोड़ दिए बल्कि बाहरी दुनिया से भी, जो सोशल मीडिया व समाचारों से नवीनतम जानकारी खोज रहे थे.

मोहम्मद की बेटी समा का जन्म, 31 अक्टूबर 2023 को ग़ाज़ा सिटी में हुआ था. उस समय बड़ी संख्या में बमबारी से हताहत लोगों के कारण एम्बुलेंंस की कमी थी. हमलों के बीच किसी तरह उन्होंने अपनी पत्नी को अस्पताल पहुँचाया. मौत के साये में उनकी पत्नी ने बच्ची को जन्म दिया. 

इसके कुछ ही हफ़्तों बाद, ग़ाज़ा से सुरक्षित स्थान की तलाश में भागते हुए इसराइली सेना की गोलीबारी में, मेरी एक सहयोगी की 4 साल की बेटी सलमा की मौत हो गई. सड़क के बीच उनकी बाँहों में उसने दम तोड़ दिया. इसका दर्द उनके चेहरे पर आज भी दरपेश है.

‘वो हम पर गोलीबारी कर रहे हैं’

वर्ष की शुरूआत में, उस दौरान एक सप्ताह के लिए हुसैन के साथ हमारा सम्पर्क टूट गया, जब उनके परिवार ने संयुक्त राष्ट्र के एक आश्रय स्थल में शरण ली हुई थी. उस समय टैंकों से उस स्थान की घेराबन्दी की गई और 40 हज़ार लोग अन्दर फँस गए. 

हुसैन से प्राप्त आख़िरी सन्देश यह था: “वो परिसर में हम लोगों पर गोलियाँ चला रहे हैं.” एम्बुलेंस व आपातकालीन टीमों को अन्दर जाने की अनुमति नहीं मिली. जब आख़िरकार उनसे दोबारा सम्पर्क स्थापित हुआ, तो वो परिसर में मारे गए लोगों के शव दफ़न करते मिले, जिनमें कई बच्चे भी शामिल थे.  

इस युद्ध में कुछ सबसे गहरा असर छोड़ने वाली तस्वीरें मेरे सहयोगी अब्दल्लाह ने ली हैं. फ़रवरी में उत्तरी ग़ाज़ा में तस्वीरें लेते समय अब्दल्लाह हमले की चपेट में आ गए. शनिवार को दोपहर में हमें ख़बर मिली कि वो हमले में मारे गए हैं. मुझे बहुत अच्छी तरह याद है कि यह सुनकर मेरी साँस ही रुक गई थी. 

लेकिन सोमवार को किसी ने जानकारी दी कि अब्दल्लाह एक अस्पताल में भर्ती हैं – जीवित हैं, मगर वो अपने दोनों पैर खो चुके थे. उसके बाद एक बार फिर 14 दिनों के लिए उनसे हमारा सम्पर्क टूट गया. उस बीच इसराइली घेराबन्दी होने के बावजूद, अल-शिफ़ा अस्पताल के डॉक्टर उन्हें ज़िन्दा रखने की कोशिशों में लगे रहे. यह चमत्कार ही था कि 4 दिन बाद आख़िरकार संयुक्त राष्ट्र की टीम उन तक पहुँचने में कामयाब हो गई.

और फिर अप्रैल आया. युद्ध आरम्भ होने के बाद पहली बार मुझे ग़ाज़ा में जाने की अनुमति मिली. मैं सबसे पहले रफ़ाह के उस अस्पताल में गई, जहाँ किसी तरह अब्दल्लाह को जीवित रखने के प्रयास किए जा रहे थे. वो अस्पताल क्या था – बस रेत में एक तम्बू गड़ा था. 

डॉक्टरों ने हमें सूचित किया कि आगे के इलाज के लिए आवश्यक उपकरण या दवा उपलब्ध न होने के कारण, उनके पास जीने के लिए केवल कुछ ही दिन शेष बचे हैं. उन्हें जीवित रखने के लिए, मेरे दो सहयोगियों ने तुरन्त रक्तदान किया. हमले के दो लम्बे महीनों बाद, अन्तत: अब्दल्लाह को उपचार के लिए बाहर निकालने की अनुमति मिली. यह रफ़ाह चौकी के स्थाई रूप से बन्द होने से कुछ ही दिनों पहले की बात है. आज भी यह विश्वास करना मुश्किल होता है कि वो इन हालात में बच पाया.  

मई में, हमारी आँखों के सामने सब कुछ बिखरता दिखने लगा. अब्दल्लाह से दोबारा मिलने और उसे सुरक्षित देखकर हुई ख़ुशी ज़्यादा दिन नहीं रही. रफ़ाह में अब सैन्य अभियान दोबारा शुरू हो गया था. चारों ओर अफ़रा-तफ़री, घबराहट और आतंक छाया था. 

मैं यह देखकर दंग रह गई कि कुछ ही दिनों के भीतर, दस लाख से अधिक लोगों को एक सीमित क्षेत्र से जबरन विस्थापित कर दिया गया था. रफ़ाह से भागने वाले शुरूआती लोगों में से एक मेरा जानकार जमाल भी था. उसने आसमान से गिराए गए पर्चों में जगह ख़ाली करने के निर्देशों का पालन किया और अपने परिवार को डेयर अल-बलाह ले आया. लेकिन उसी रात, एक इसराइली हमले में उसकी तब मौत हो गई, जब वो अपने परिवार के सथ सोया हुआ था.

क्या दुनिया का ध्यान अभी भी इस तरफ़ है?

रफ़ाह छोड़कर जाने वाले मेरे जानने वाले कुछ आख़िरी लोगों में से एक है मोहम्मद. उनके चेहरे की गम्भीरता से एक अनकहा डर झलकता था और वो काफ़ी दिनों तक अपने चारों ओर व्याप्त हालात को अनदेखा करता रहा. उनके हर एक भाव व बातचीत का सार एक ही था – “मगर हम जाएँ तो जाएँ कहाँ.” 

मोहम्मद उस दिन तक रूका रहा – वो दिन जब इसराइली हमले से लगी आग से एक तम्बू में जलकर मरे बच्चे के सिरकटे धड़ को खींचकर बाहर निकाला गया था – यह मंज़र वैश्विक स्तर पर सुर्खियों में रहा था. 

उन्होंने कहा भी था कि हम सभी की नज़रें रफ़ाह पर हैं. बाहर किसी को पता नहीं होगा, लेकिन यह केवल उस रात की नहीं, हर रात का मंज़र था. लेकिन लोगों के दुस्स्वप्न से बाहर निकलकर अक्सर यह दृश्य दुनिया भर की मीडिया में उजागर नहीं होते हैं. मोहम्मद के ज़ेहन में आज भी हर रात जलकर मर रहे उन बच्चों की चीखें गूँजती हैं.  

अगर आप पढ़ते-पढ़ते यहाँ तक पहुँच गए हैं तो आपको समझ आ जाएगा कि मैं यहाँ ग़ाजा में क्यों हूँ. आप समझेंगे कि मैंने अपना जीवन क्यों रोक दिया है. जो समय मुझे अपने दोस्तों के साथ अपनी मौजमस्ती करते बिताना था, उसकी जगह मैं लगातार इन ख़ौफ़नाक घटनाओं को सभी तक पहुँचाने की कोशिश कर रही हूँ जो ग़ाज़ावासियों के लिए आज हक़ीकत बने हुए हैं. 

उन परिवारों की चीखें लोगों तक पहुँचाने के लिए, जो हमसे मदद की गुहार लगा रहे हैं, जो महीनों से बन्दी बनाए अपनों की रिहाई के लिए बेताब हैं. चौकियों के आसपास लाशों को कुत्तों के खाने के लिए छोड़ने की ख़बरें रिपोर्ट करने, ‘मानवतावादी इलाक़ों’ में हमलों के बाद अपने अंग खोने की वजह से अस्पतालों में भर्ती बच्चों की ख़बरें. 

मोना के भाई की मौत, हुसैन की बेटी की मौत, राजा के चचेरे भाई की मौत. क्या आप इन ख़बरों से तारतम्य रख पा रहे हैं? क्योंकि हम तो ऐसा करने में बिल्कुल असमर्थ हो चुके हैं. अगर आप जानते हैं कि आपका परिवार सुरक्षित है, तो मानिए कि आप बहुत भाग्यशाली हो.     

ज़मीन पर मौजूद पत्रकार, दुनिया को अपने दोस्तों, परिवारों व पड़ोसियों को तबाह करने वाली भयावहता दिखाने के लिए हर दिन अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं. क्या दुनिया का ध्यान अब भी इस ओर है? या फिर ग़ाज़ा से बाहर के लोग विभिन्न तरीक़ों से मारे जा रहे बच्चों की कहानियाँ सुनकर थक गए हैं: हमलों में मौत, मलबे के नीचे दबकर मौत, कुपोषण से मौत, अस्पतालों पर बमबारी में मौत, बिजली न होने पर इनक्यूबेटर बन्द होने से मौत, या केवल इसलिए मौत चूँकि वे बच्चे जीवित थे, उनका अस्तित्व था. 

एक पूरा समाज अब एक क़ब्रिस्तान में तब्दील हो चुका है. लेकिन किसी के पास इतना भी समय नहीं है कि वो मरने वालों का शोक मना सके, क्योंकि उन्हें जीवित रहना है. भोजन, पानी, स्वास्थ्य देखभाल, सुरक्षा - यह कैसी विडम्बना है कि एक और वर्ष ख़त्म हो रहा है और लोग बुनियादी ज़रूरतों के लिए भी तरस रहे हैं? 

अभी भी ग़ाजा में 100 लोगों को बंधक बनाया हुआ है, और उनके परिवार बेसब्री से उनकी वापसी या उनकी सुरक्षा की ख़बर पाने का इन्तज़ार कर रहे हैं. 20 लाख से ज़्यादा लोग फँसे हुए हैं. वो भागकर कहीं जा नहीं सकते. निकलने का कोई रास्ता नहीं है.

जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं बेबी समा के जन्मदिन पर गाया गीत भूल नहीं सकती, जब हम सभी ने बमों से थरथराती ज़मीन पर पूरे साहस से खड़े होकर धमाकों की आवाज़ें दबाने का जज़्बा लिए, पूरी ज़ोर से, बुलन्द आवाज़ में गाना गया था. समा अब एक साल की हो गई हैं. लेकिन उस बच्ची का पूरा जीवन, शायद इस युद्ध की क्रूरता की भेंट चढ़ जाए या शायद उससे परिभाषित हो." 


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Amalendu Upadhyaya
वेबसाइट संचालक अमलेन्दु उपाध्याय 30 वर्ष से अधिक अनुभव वाले वरिष्ठ पत्रकार और जाने माने राजनैतिक विश्लेषक हैं। वह पर्यावरण, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, युवा, खेल, कानून, स्वास्थ्य, समसामयिकी, राजनीति इत्यादि पर लिखते रहे हैं।