सूखा: मूक हत्यारा और इसके बढ़ते प्रभाव
भारत सहित दुनिया भर में सूखा संकट
- सूखा और मरुस्थलीकरण: एक गंभीर वैश्विक चुनौती
- UNCCD की सूखा सहनसक्षमता पहल और COP16 सम्मेलन
- सुखा से निपटने के लिए सक्रिय कदम और समाधान
- COP16 सूखा और मरुस्थलीकरण सम्मेलन
सू
खा, अब एक 'मूक हत्यारा' बन चुका है, जो दुनिया भर में बढ़ते जलवायु संकट और भूमि कुप्रबंधन के कारण विनाशकारी प्रभाव डाल रहा है। संयुक्त राष्ट्र के इब्राहीम चियाऊ ने सूखा, मरुस्थलीकरण और भूमि पुनर्बहाली के मुद्दे पर COP16 सम्मेलन (COP16 conference on drought, desertification and land restoration) में गंभीर चेतावनी दी। संयुक्त राष्ट्र समाचार की इस रिपोर्ट में जानिए सूखा और उसके दुष्प्रभावों के बारे में, और कैसे यह वैश्विक स्तर पर समग्र रूप से लोगों की आजीविका, पानी की आपूर्ति और कृषि को प्रभावित कर रहा है। साथ ही, सूखा संकट से निपटने के लिए उठाए जा रहे कदमों और वैश्विक उपायों पर भी चर्चा की गई है। |
Drought: 'A silent killer that strikes with devastating force' - UNCCD warns of drought crisis in 2024 |
सूखा: ‘दबे पाँव विनाशकारी दस्तक देने वाला मूक हत्यारा’
संयुक्त राष्ट्र में मरुस्थलीकरण, सूखे और भूमि की पुनर्बहाली पर काम करने वाले वरिष्ठतम अधिकारी इब्राहीम चियाऊ ने कहा है कि दुनियाभर में सूखा पड़ने की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं और यह अब ‘मन्द गति से आने वाला एक ऐसा, ख़ामोश हत्यारा’ बन गया है, जिससे बचना किसी भी देश के लिए सम्भव नहीं है.
मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन (UNCCD) के कार्यकारी सचिव इब्राहीम चियाऊ ने, सउदी अरब के रियाद शहर में चल रहे महत्वपूर्ण वैश्विक सम्मेलन कॉप16 के उदघाटन समारोह में यह बात कही.
इस सम्मेलन में सूखे पर एक नवीन वैश्विक व्यवस्था पर सहमति बनने की उम्मीद है, जिसके तहत प्रतिक्रियात्मक राहत कार्रवाई की जगह, सक्रिय तैयारियों पर ध्यान केन्द्रित किया जाएगा.
सूखे के बारे में जानने योग्य कुछ अहम तथ्य:
- सूखे की निरन्तरता व तीव्रता में वृद्धि
- सूखा पड़ना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन हाल के दशकों में जलवायु परिवर्तन एवं असतत भूमि प्रबन्धन के कारण इसकी तीव्रता बढ़ी है.
- वर्ष 2000 से, सूखे की घटनाओं की बारम्बारता व तीव्रता में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इससे कृषि, जल सुरक्षा और एक अरब 80 करोड़ लोगों की आजीविकाओं के लिए जोखिम पैदा हो गया है, जिसका सबसे बड़ी ख़ामियाज़ा निर्धनतम देशों को भुगतना पड़ रहा है.
- इसके परिणामस्वरूप, पानी जैसे आवश्यक संसाधनों की कमी, टकरावों का कारण बन सकती है, और अधिक उत्पादक भूमि की ओर पलायन से विस्थापन संकट बढ़ सकता है.
कोई भी देश सुरक्षित नहीं
पिछले तीन वर्षों में ही, 30 से अधिक देशों में सूखे की वजह से आपात स्थिति लागू हो चुकी है. इसमें भारत और चीन जैसे देशों के साथ-साथ संयुक्त राज्य अमेरिका, कैनेडा व स्पेन जैसे उच्च आय वाले देश तथा उरुग्वे, दक्षिण अफ़्रीका एवं इंडोनेशिया सरीख़े देश भी शामिल हैं.
सूखे के कारण योरोप की राइन नदी में अनाज परिवहन बाधित हुआ, मध्य अमेरिका में पनामा नहर पर अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में बाधा पहुँची, और अपनी 60 प्रतिशत से अधिक बिजली आपूर्ति के लिए पानी पर निर्भर ब्राज़ील को जलविद्युत में कटौती करनी पड़ी.
नवम्बर 2024 की सर्दियों में कई सप्ताहों तक बारिश नहीं होने के कारण, संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में स्थित एक शहरी पार्क में झाड़ियों में आग लग गई, जिसे बुझाने के लिए अग्निशमिकों को बुलाना पड़ा.
UNCCD के इब्राहीम चियाऊ ने बताया, “सूखा नए क्षेत्रों में फैल गया है. कोई भी देश इससे अछूता नहीं है."
उन्होंने कहा कि "2050 तक, वैश्विक स्तर पर चार में से तीन लोग, यानि लगभग साढ़े सात अरब लोग, सूखे का प्रभाव महसूस करेंगे."
'डोमिनो' प्रभाव
सूखा शायद ही कभी एक विशिष्ट स्थान या समय तक ही सीमित रहता है और इसकी वजह केवल वर्षा की कमी ही नहीं होती, बल्कि अक्सर जलवायु परिवर्तन या फिर भूमि का लगातार कुप्रबन्धन भी सूखा पड़ने की वजह बनती हैं.
उदाहरण के लिए, जिस पहाड़ी पर वनों की कटाई कर दी जाती है, उसका तुरन्त क्षरण हो जाता है. इससे भूमि चरम मौसम के प्रति अपनी सहनसक्षमता खो देती है और सूखे एवं बाढ़ दोनों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती है.
ये प्रलयकारी घटनाएँ, डोमिनो प्रभाव यानि आपस में जुड़ी घटनाओं की एक श्रृँखला शुरू कर सकती हैं, जिससे अत्यधिक गर्म तापलहरें या फिर बाढ़ तक आ सकती है.
यह स्थिति लोगों के जीवन एवं आजीविकाओं के लिए जोखिम कई गुना बढ़ा देती है. साथ ही इसकी असीम दीर्घकालिक मानवीय, सामाजिक और आर्थिक लागत भी भुगतनी पड़ सकती है.
प्रभावित समुदाय, अर्थव्यवस्थाएँ और पारिस्थितिकी तंत्र जैसे-जैसे सूखे के हानिकारक प्रभावों को झेलते हैं, उसके साथ ही अगली आपदा से निपटने के लिए उनकी सहनसक्षमता कम होती जाती है, जिससे भूमि क्षरण तथा विकास में गिरावट का दुष्चक्र शुरू हो जाता है.
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Photo- UN News/Daniel Dickinson |
विकास और सुरक्षा का मुद्दा
विश्व में उपलब्ध पेयजल का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा, भूमि पर रहने वाले लोगों के हाथों में है. उनमें से अधिकाँश लोग, कम आय वाले देशों में सीमित आजीविका विकल्पों के साथ गुज़ारा करने वाले किसान हैं. इनमें लगभग ढाई अरब युवजन हैं.
जल के बिना न तो भोजन उपलब्ध होगा और न ही भूमि-आधारित रोज़गार, जिसके परिणामस्वरूप जबरन प्रवासन, अस्थिरता और संघर्ष में इज़ाफ़ा हो सकता है.
UNCCD की उप कार्यकारी सचिव ऐंड्रिया मेज़ा का कहना है, "सूखा केवल एक पर्यावरणीय मसला नहीं है. सूखा विकास और मानव सुरक्षा का एक मुद्दा है, जिससे हमें सभी क्षेत्रों एवं प्रशासनीय स्तरों पर तत्काल निपटने की आवश्यकता है."
सहन सक्षमता बढ़ाने की योजना
मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ भूमि कुप्रबन्धन के कारण सूखे की घटनाएँ अधिक गम्भीर व तीव्र होती जा रही हैं. लेकिन इससे निपटने के लिए अधिकतर वैश्विक कारर्वाई अभी भी प्रतिक्रियात्मक ही है.
घटती जल आपूर्ति से उत्पन्न चरम स्थितियों के प्रति सहनसक्षमता बढ़ाने के लिए अतिरिक्त योजनाएँ और अनुकूलन की ज़रूरत है, जो अक्सर स्थानीय स्तर पर ही लागू की जाती हैं.
ज़िम्बाब्वे में युवजन के नेतृत्व वाले एक ज़मीनी स्तर के संगठन ने, इस दक्षिणी अफ़्रीकी देश में एक अरब पेड़ लगाकर भूमि को पुनर्बहाल करने का बीड़ा उठाया है.
वहीं कैरेबियाई द्वीप हेती में, पेड़ों के संरक्षण के लिए, अधिक से अधिक किसान अब मधुमक्खी पालन का रुख़ कर रहे हैं. मधुमक्खी पालन के ज़रिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि मधुमक्खियों के लिए ज़रूरी पेड़ सुरक्षित रहें और उन्हें काटा नहीं जाए.
माली में, एक युवा महिला उद्यमी, मोरिंगा पेड़ के उत्पादों को बढ़ावा देकर आजीविकाओं का निर्माण करने के साथ-साथ, सूखे के प्रति सहनसक्षमता बढ़ाने में मददगार साबित हो रही हैं.
विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की सक्रिय पहलों के ज़रिए, भारी मानवीय पीड़ा को रोका जा सकता है.
साथ ही यह कार्रवाई, प्रतिक्रिया एवं पुनर्बहाली पर केन्द्रित हस्तक्षेपों की तुलना में कहीं अधिक क़िफ़ायती भी है.
आगे क्या?
COP16 में देश इस बात पर सहमति बनाने के लिए एकजुट हो रहे हैं कि सूखे की बिगड़ती स्थिति से किस तरह सामूहिक रूप से निपटा जाए और टिकाऊ भूमि प्रबन्धन को बढ़ावा दिया जाए.
उद्घाटन दिवस पर दो प्रमुख शोध जारी किए गए जिनमें सूखे का वैश्विक मानचित्र, सूखे के जोखिमों की प्रणालीगत प्रकृति दर्शाता है कि कैसे वे ऊर्जा, कृषि, नदी परिवहन तथा अन्तरराष्ट्रीय व्यापार जैसे क्षेत्रों में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, और इससे किस तरह के व्यापक प्रभाव उत्पन्न हो सकते हैं, असमानताएँ एवं संघर्ष बढ़ सकते हैं व सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए ख़तरा उतपन्न हो सकता है.
सूखा सहनसक्षमता वेधशाला (Drought Resilience Observatory) सूखे के प्रति सहनसक्षमता बढ़ाने के लिए एक कृत्रिम बुद्धिमत्ता-संचालित डेटा मंच है, जिसे अन्तरराष्ट्रीय सूखा सहनसक्षमता गठबंधन (IDRA) ने बनाया है.
यह गठबन्धन, सूखे से निपटने की कार्रवाई के लिए प्रतिबद्ध 70 से अधिक देशों और संगठनों का समूह है, जिसकी मेज़बानी UNCCD करता है.
इसकी लागत कितनी होगी?
संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक़, दुनिया भर में सूखे और भूमि कुप्रबन्धन से प्रभावित क्षेत्र की पुनर्बहाली के लिए वर्ष 2030 तक कुल 2.6 ख़रब डॉलर के निवेश की आवश्यकता होगी.
COP16 में रियाद वैश्विक सूखा सहनसक्षमता साझेदारी को वित्तपोषित करने के लिए, 2.15 अरब डॉलर की धनराशि के प्रारम्भिक योगदान की घोषणा की गई है.
सउदी अरब के पर्यावरण, जल एवं कृषि मंत्रालय के पर्यावरण उप मंत्री, डॉक्टर ओसामा फ़कीहा ने कहा है, "यह सूखे से निपटने के लिए एक वैश्विक सुविधा की तरह होगी, जो प्रतिक्रियाशील राहत कार्रवाई से सक्रिय तैयारियों की ओर बदलाव को प्रोत्साहन देगा."
उन्होंने कहा कि दुनिया भर में जीवन और आजीविकाएँ बचाने के लिए, हम वैश्विक संसाधनों के विस्तार के भी प्रयास कर रहे हैं."
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