राज कपूर के 100 वें जन्मदिन पर : शैलेन्द्र की अहम भूमिका और सिनेमा की सच्ची साझेदारी | Raj Kapoor's 100th Birthday
राज कपूर और शैलेन्द्र: सिनेमा के महान साझेदार 💂
राज कपूर की फिल्में और शैलेन्द्र के अविस्मरणीय गीत
- बम्बई सिनेमा की तिकड़ी: राज कपूर, दिलीप कुमार, और देवानंद
- राज कपूर का कृतित्व: एक निर्माता, निर्देशक, और एक अद्वितीय सिनेमा शिल्पकार
- शैलेन्द्र की पुण्य तिथि और राज कपूर की भावनात्मक श्रद्धांजलि
आज राज कपूर के 100 वें जन्मदिन पर हम याद करते हैं शैलेन्द्र को, जिनकी कविताएँ और गीतों ने राज कपूर की फिल्मों को अमर बना
दिया। राज कपूर का योगदान भारतीय सिनेमा में अद्वितीय था और उनके साथ शैलेन्द्र का
सहयोग सिनेमा की दुनिया में एक बेमिसाल साझेदारी की मिसाल है। शैलेन्द्र के गीतों
ने राज कपूर की फिल्मों में गहरी संवेदनाएँ और सामाजिक मुद्दों को उजागर किया।
उनके साथ मुकेश और शंकर जयकिशन का योगदान भी राज कपूर की फिल्मों को आज भी दर्शकों
के दिलों में जीवित रखता है। इस लेख में जानें, कैसे शैलेन्द्र और राज कपूर ने मिलकर भारतीय सिनेमा को एक
नई दिशा दी।
शैलेन्द्र के बिना अधूरे राजकपूर
विद्या भूषण रावत
हिन्दुस्तानी सिनेमा में
सामूहिकता को साकार करने वाले लीजेंड राज कपूर का आज 100 वां जन्म दिन है। देश भर
में राज कपूर की जन्म शताब्दी मनाई जा रही है और उनकी फिल्मों का विशेष उत्सव देश
के विभिन्न शहरों में किया जा रहा है।
राज कपूर हमारे सिनेमा का
इतिहास हैं और आज की पीढ़ी उनकी फिल्मों और कलाकारी को देखेगी तो उसे अंदाज लगेगा कि
राज कपूर मात्र एक अभिनेता या निर्माता निर्देशक ही नहीं थे, अपितु अपने आप में
पूरा संस्थान थे।
राज कपूर की फिल्मों और
दृष्टिकोण पर चर्चा करते समय हमे शैलेन्द्र, मुकेश, शंकर जयकिशन को भी याद
करना पड़ेगा।
आज राज कपूर का जन्म दिन है
लेकिन ये भी एक हकीकत है कि आज ही उनके कविराज शैलेन्द्र की पुण्य तिथि भी है।
अपने कविराज की मृत्यु पर राजकपूर कितना रोए थे, ये उनके नजदीकी लोग बताया सकते
हैं और कुछ वर्षों बाद फिल्म फेयर पत्रिका में उन्होंने इस विषय में एक लेख भी
लिखा था।
ऐसे ही अमर गायक मुकेश की मौत
ने उन्हें निहायत अकेला बना दिया था। एक कलाकार का अपने अन्य क्रिएटिव मित्रों के
साथ इतना नजदीकी रिश्ता अन्य लोगों में देखने को नहीं मिलता।
बम्बई सिनेमा की प्रसिद्ध तिकड़ी के सबसे बड़े स्तम्भ थे राज कपूर
राज कपूर बम्बई सिनेमा की
प्रसिद्ध तिकड़ी (राज कपूर, दिलीप कुमार, देवानंद) के सबसे बड़े स्तम्भ थे। अक्सर लोग इन तीनों
कलाकारों की तुलना करते हैं और फिर एक नतीजा निकाल लेते हैं, लेकिन तीनों ही
बेहतरीन कलाकार थे और एक दूसरे के अभिन्न मित्र। दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में
स्वयं लिखा है कि उन्हें सिनेमा में लाने वाले राज कपूर थे। दोनों के परिवार
पेशावर से थे और पारिवारिक मित्र थे। दिलीप कुमार फिल्मों के कभी भी काम करने को
उत्सुक नहीं थे, लेकिन राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर थिएटर की दुनिया में एक
बहुत बड़ा नाम थे और बाद में उन्होंने बड़े बैनर्स के फिल्मों में काम करना शुरू
किया। राज कपूर को इसका थोड़ा लाभ हुआ होगा लेकिन ये बात भी दिलीप कुमार बताते हैं
कि जब वह बम्बई आये तो उन्हें फिल्मों में काम करने के लिए राज कपूर ने ही प्रेरित
किया। खैर, राज कपूर ने फिल्म
निर्देशक केदार शर्मा के फिल्म सहायक के रूप में काम किया और उनकी पहली फिल्म नील
कमल थी ( बाद में एक नीलकमल फिल्म मनोज कुमार ने भी बनाई थी जो परदे पर खूब चली)
लेकिन 24 वर्ष की उम्र में ही राज कपूर ने ये निर्णय ले लिया के वे क्रिएटिविटी की
दुनिया में कुछ नया करेंगे और उनकी पहली फिल्म आग का निर्माण किया। 1948 में बनी
इस फिल्म का पहला सीन ही इतना खतरनाक के कोई भी नया ‘हीरो’ आज तक वैसा नहीं कर
पाया। पहले ही सीन में फिल्म के नायक का आग में झुलसा चेहरा दिखाने की हिम्मत एक 24
वर्षीय नौजवान ने की जो अपने को नायक के तौर पर स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहा
था। आग फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नहीं चली लेकिन राज कपूर ने सिनेमा में एक नायक और
निर्माता के तौर पर दस्तक दे दी। ये अंदाज हो गया था कि लीक से हटकर सोचकर फिल्म
बनाने वाला एक युवा आ चुका है। इस फ़िल्म में राज कपूर के लिए मुकेश का गाया ‘ज़िंदा
हूँ इस तरह के गमें जिन्दगी नहीं, जलता हुआ दिया हूँ मगर रौशिनी नहीं’, बहुत लोकप्रिय हुआ और आज भी सुना जाता है।
मुकेश बने दिल की आवाज
फिल्म आग से राज कपूर और मुकेश
का चोली-दामन का साथ हो गया। राज कपूर ने मुकेश को अपनी ‘आवाज’ बताया। 1949 में
राज कपूर ने फिल्म बरसात का निर्माण किया। इस फिल्म के लिए गीत शैलेन्द्र ने लिखे
और संगीतकार शंकर जयकिशन भी राज कपूर की फिल्म के स्थाई साथी बने। राज कपूर के साथ
परदे पर नर्गिस उनकी प्रेमिका बनी। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त धमाका किया और
इसका म्यूजिक अमर हो गया। फिल्म का टाइटल सोंग ‘बरसात में हम से मिले तुम सजन तुम
से मिले हम’ शैलेन्द्र का लिखा हुआ था और अत्यंत लोकप्रिय हुआ।
बरसात ने दरअसल आर के बैनर्स की
बुनियाद को मजबूती से स्थापित कर दिया और यहीं से आर के का लोगो जिसमें
राजकपूर की बाहों में नर्गिस दिखाई देती हैं, सिनेमा की एक अमर कृति बन गया।
बरसात ने मात्र राजकपूर को
स्थापित नहीं किया अपितु भारतीय सिनेमा में एक पूरी डेडिकेटेड टीम को जन्म दिया
जहां सिनेमा केवल एक हीरो तक सीमित नहीं है अपितु इसमें पटकथा, संगीत, गीत, फोटोग्राफी आदि सभी का योगदान है।
राजकपूर शायद अकेले वो कलाकार
और निर्माता निर्देशक थे जिन्होंने अपनी सफलताओं के लिए अपनी पूरी टीम को श्रेय
दिया, जिसमें उनकी हीरोइन नर्गिस के अलावा शैलेन्द्र, मुकेश, शंकर जय किशन, लता मंगेशकर और ख्वाजा अहमद अब्बास भी शामिल थे।
बरसात फिल्म के बाद राजकपूर के
कृतित्व में शैलेन्द्र अभिन्न रूप से जुड़ गए। शैलेन्द्र एक महान गीतकार थे जो
मुख्यतः एक कवि थे और रेलवे में काम करते थे। ऐसा कहा जाता है कि राज कपूर ने
शैलेन्द्र को एक कवि सम्मलेन में कविता करते सुना था जहां वह ‘जलता है पंजाब’
नामक कविता पढ़ रहे थे। राज कपूर उनसे बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपनी पहली फिल्म
आग में गीत लिखने के लिए कहा था जिसे शैलेन्द्र ने शालीनता से नकार दिया। फिर भी
राजकपूर ने शैलेन्द्र को ये कहा कि जब भी उन्हें उनकी जरुरत महसूस हो वो उनके पास
अवश्य आ सकते हैं।
जब शैलेन्द्र की पत्नी गर्भवती
थीं तो उन्हें पैसों की जरुरत महसूस हुई। उन्होंने दो गीत लिखे हुए थे और उसे लेकर
वह राज कपूर के स्टूडियो पहुँच गए। ये उस समय की बात है जब राज कपूर फिल्म बरसात बना
रहे थे। बरसात के दो गीत अभी लिखे जाने बाकी थे। टाइटल साँग और एक अन्य। शैलेन्द्र
ने वो लिखने का वायदा किया। राज कपूर ने उन्हें पांच सौ रुपये दिए जो उस समय के
हिसाब से बहुत बड़ी रकम थी। उसके बाद शैलेन्द्र राज कपूर की प्रसिद्ध टीम का हिस्सा
बन गए।
बरसात के बाद राज कपूर-मुकेश और
शैलेन्द्र के बिना आर के बैनर्स की कोई फिल्म की कल्पना नहीं की जा सकती थी। शैलेन्द्र
ने जो भी खूबसूरत गीत लिखे उनमें ‘दिल’ को मुकेश ने डाला और राज कपूर ने परदे पर
उसे लोगो से जोड़ा।
बरसात के बाद राज कपूर की
‘आवारा’ ने तो दुनिया में आर के का परचम लहरा दिया। राजकपूर भारत के वो पहले स्टार
थे जिन्होंने भारत से बाहर विदेशों में विशेषकर रूस, चीन,
जर्मनी, हंगरी आदि
देशो में अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की।
शैलेन्द्र के गीत को मुकेश की
आवाज ने घर घर पहुंचा दिया। ‘आवारा हूँ, या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ’ आज भी विदेशों में वैसे ही लोकप्रिय है और इसके बहुत से
वर्जन आपको दिखाई देंगे। इस फिल्म में शैलेन्द्र के गीतों ने जबर्दस्त सफलता
प्राप्त की। राजकपूर के निर्देशन की तो बहुत तारीफ हुई ही। फिल्म का पूरा कथानक
हमारे समाज में व्याप्त सामंती चरित्र का पर्दाफाश किया जहां ये मानता है कि
अपराधी का बेटा ही अपराधी होता है। बड़े लोगो के तो अपराध माफ़ हैं। राज कपूर और
नर्गिस के रोमांस को इस फिल्म ने एक नया मुकाम दिया। दोनों पर फिल्माया हुआ : दम
भर जो उधर मुंह फेरे, ओ चन्दा, मैं
उनसे प्यार कर लूंगा’ सिनेमेटोग्राफी की दृष्टि से बेहतरीन प्रस्तुति है। इसी फिल्म में नर्गिस पर फिल्माया ‘घर आया मेरा परदेशी’
भी राजकपूर ने ड्रीम सीक्वेंस को ऐसे फिल्मांकित किया है जो उन्हें सिनेमा के सबसे
पहले और बड़े शोमैन का दर्जा देती है.
शैलेन्द्र के अविस्मरणीय गीत
कथानक, गीत संगीत और सिनेमेटोग्राफी राज कपूर की फिल्मों का प्रमुख
हिस्सा थे। राज कपूर ने कभी ये तो नहीं कहा कि वह ‘आर्ट’ सिनेमा बनाते हैं लेकिन
व्यावसायिक सिनेमा में हमारे सामाजिक सवालों को उन्होंने बेहद संजीदगी और स्पष्टता
के डाला। सिनेमा में इतने प्रयोग करने वाला कोई स्टार नहीं था। उनके समकालीन दिलीप
कुमार इतने बड़े रिस्क लेने को कभी तैयार नहीं थे और अधिकांश सिनेमा बनी बनाई थीम्स
पर होती थीं, लेकिन राज कपूर इस मायने में अपने सारे समकालीन कलाकारों से बहुत आगे
थे।
यदि सिनेमा, संगीत और लोगों के सवाल पर जो उनके नजदीक आते थे, वो थे
गुरु दत्त जो वाकई में एक बेहद संवेदनशील अभिनेता निर्देशक थे और बहुत कम उम्र में
ही उनका देहांत हो गया। हालाँकि जाते-जाते वो हिन्दुस्तानी सिनेमा को प्यासा, साहेब बीवी और गुलाम, कागज के फूल आदि
कभी न भूलने वाली फिल्में दे गए। 1953 में राज कपूर ने फिल्म बूट पालिश
बनाई जो बहुत नहीं चली, वह इसमें कोई
बड़ी भूमिका में नहीं थे लेकिन इस फिल्म का गीत ‘नन्हें मुन्हें बच्चे तेरी
मुट्ठी में क्या है‘ बहुत चला और इसे न केवल फिल्म फेयर के लिए नोमिनेशन
मिला अपितु कैनंस फिल्म फेस्टिवल ग्रैंड ज्यूरी प्राइज के लिए भी नोमिनेट किया गया
था।
1956 में राज कपूर की जागते
रहो को कार्लोव वैरी अन्तरराष्ट्रीय फेस्टिवल में क्रिस्टल ग्लोब अवार्ड मिला।
ये दोनों ही फिल्म अपने आप में क्लासिक थीं, लेकिन शायद बॉक्स ऑफिस के हिसाब से
उतना बेहतरीन संगीत नहीं दे पायीं। राज कपूर जानते थे कि सिनेमा की सफलता में उसके
गीत संगीत की बहुत बड़ी भूमिका होती है और वो ये सुनिश्चित करते थे कि ये बेहतरीन
हो। इसीलिये राजकपूर को अपने कविराज पर बहुत गर्व था।
आवारा के बाद राज कपूर ने अगली
हिट फिल्म दी थी श्री 420. फिल्म संगीत, कथानक, एक्टिंग, सिनेमा के हर कोण से एक क्लासिक कही जा सकती है। आज भी यह
फिल्म भारत में व्याप्त सामाजिक आर्थिक ढाँचे पर एक बेहद अच्छा प्रहार है। इसका
गीत रमैय्या वस्ता वैय्या, मैंने दिल तुझको दिया पिक्चराइजेशन का वो नमूना है जिसे कोई दूसरा निर्देशक दूर दूर तक सोच भी नहीं
सकता।
राज कपूर को संगीत की भी समझ थी
और वह लगभग हर वाद्य बजा लेते थे। ढपली बजा कर नाचने के मामले में पूरे सिनेमा में
कोई उनके नज़दीक भी नहीं आ सकता। उनके बेटे ऋषिकपूर इस मामले में सफल माने जाते हैं
जिनकी ढपली पर कई गाने हिट हुए हैं। इस फिल्म में ‘मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के’,
और दिल का हाल सुने दिल वाला, छोटी से बात न
मिर्च मसाला, कहके रहेगा कहने वाला, आज के समाज के भ्रष्ट रूप पर एक करारा प्रहार है।
राजकपूर के पुश्किन शैलेन्द्र
गंभीर बात को हलके से कहने में माहिर थे। उनके गाने इतनी आसानी से दिल की गहराइयों
को छू लेते हैं कि आज तक साधारण शब्दों में बड़ी बात बोलने में शैलेन्द्र का कोई
मुकाबला नहीं।
इसी फिल्म का आइकॉनिक साँग बना
‘प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल’, कहता है दिल
रस्ता मुश्किल मालूम नहीं है कहा मंजिल, लता मंगेशकर और मन्ना डे द्वारा गया है। इस गाने को देखें तो आपको पता चलेगा कि
किसी भी गीत में रोमांस और सेंसुअसनेस को लाने के लिए उसे भोंडा बनाने की जरुरत
नहीं है। जिस प्रकार से पूरे गाने को फिल्माया गया वो हर एक प्रेमी के लिए एक
स्वप्न है और ये दिखाता कि रोमांस के लिए नग्नता की जरुरत नहीं है। राज कपूर और
नर्गिस दत्त ने आग से लेकर जागते रहो तक 16 फिल्मों में साथ काम किया और रुपहले
परदे पर वे सबसे रोमांटिक युगल के तौर पर जाने जाते हैं।
हालाँकि राजकपूर और नर्गिस परदे
पर एक दूसरे के लिए बने हुए थे और उनके रिश्तों के चर्चे भी होने लगे थे। एक बार
उन्होंने नर्गिस से कहा कि कृष्णा, मेरी पत्नी, मेरे बच्चों की माँ है और
और मैं चाहता हूँ कि तुम ( नर्गिस) मेरी फिल्मों की माँ बनो।
रोमांस के जादूगर थे राजकपूर
एक अभिनेता के तौर पर राजकपूर
ने अपने बैनर के बाहर की फिल्मों में भी काम किया और वे खूब चलीं भी। राजकपूर
दिलीप कुमार की अंदाज बहुत हिट फिल्म थी जो महबूब खान ने बनाई थी, जिसमें राज कपूर
का रोल थोड़ा नकारात्मक था। मुकेश के गाये, नौशाद के संगीतबद्ध किये सभी गीत दिलीप कुमार पर फिल्माए गए थे, लेकिन ऐसा कहा
जाता है कि राजकपूर का नकारात्मक रोल लोगों को ज्यादा पसंद आया। हालांकि इसके बाद
से दोनों किसी फिल्म में साथ नहीं आये। राज कपूर और नर्गिस दत्त की एक बेहद
रोमांटिक फिल्म थी “चोरी चोरी” जो 1956 में बनी थी और इसके गीत शैलेन्द्र ने लिखे और म्यूजिक शंकर जय
किशन का था। राजकपूर के लिए सभी गानों को मन्ना डे ने आवाज दी और संगीत और गानों
की दृष्टि से यह फिल्म सुपर डुपर हिट थी। इसके गीत आज भी उतने ही जवान हैं, जितने
पहले थे। रोमांस के ऐसे गीतों का आज भी मुकाबला नहीं। ‘आजा सनम, मधुर चांदनी में हम, तुम मिले तो वीराने में आ जायेगी बहार’ हो या जहां ‘मैं जाती हूँ, वही चले आते हो’, अथवा ‘ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फिजाए, उठा
धीरे धीरे वो चाँद प्यारा प्यारा’, सभी अदभुद गीत हैं।
लता मंगेशकर के गाये और नर्गिस
पर फिल्माए, पंछी बनूं
उडती फिरूं मस्त गगन में, आज मै आज़ाद हूँ दुनिया के चमन में, आज भी उतना ही कर्णप्रिय और सकारात्मक है जैसे पहले था।
राज कपूर की आर के फिल्म्स बाहरी
फिल्मों में प्रमुख थी फिर सुबह होगी, अनाड़ी, कन्हैया, शारदा, परवरिश, मैं नशे में हूँ, आशिक, श्रीमान
सत्यवादी, छलिया, नज़राना, दूल्हा दुल्हन, इन में भी
बहुत सी फिल्मों में शैलेन्द्र ने उनके गीत लिखे और मुकेश ने अपनी आवाज से उन्हें
अमर किया। ‘किसी की मुस्कुराहटो पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है’ आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे प्रभाशाली गीतों में कहा जा सकता है। इसके
अलावा,
मैं आशिक हूँ बहारों का, या तुम जो हमारे मीत न होते, गीत ये मेरे
गीत ना होती बेहद ही संवेदनशील गीत है। फिल्म मैं नशे में हूँ में शैलेन्द्र ने
बेहद खूबसूरत गीत लिखा “ मुझको यारो माफ़ करना मैं नशे में हूँ’.
फिर सुबह होगी, एक भविष्य दृष्टा फिल्म थी जिसमें राज कपूर ने बिलकुल अलग
रोल किया और इस फिल्म के गीत साहिर ने लिखे और उसका संगीत खैय्याम का था लेकिन
यहाँ भी मुकेश की दिलकश आवाज ने ‘ वो सुबह कभी तो आयेगी’ को अमर कर दिया। आज भी ये
गीत हमारे सामाजिक आन्दोलनों का प्रमुख गीत है। इसी फिल्म में साहिर का एक और
बेहतरीन गीत है ‘ चीनो अरब हमारा, सारा जहां
हमारा,
रहने को घर नहीं है, हिंदोस्ता हमारा , जो आज भी उतना
ही प्रासंगिक है जितना शायद पहले था। कवियों और लेखको के ये शब्द तभी सामने आते है
जब सत्ता आपकी भावनाओं की कद्र करती है। वो जमाना नेहरूवियन एज मानी जाती है और
इसलिए शैलेन्द्र हो या साहिर, सभी ने अपनी
अभिव्यक्ति को अत्यंत सशक्त तरीके से प्रस्तुत किया।
राज कपूर, शैलेन्द्र और मुकेश की अमर कृति है जिस देश में गंगा बहती है
शैलेन्द्र और राजकपूर का अगला
कमाल था ‘जिस देश में गंगा बहती है’। ये फिल्म 1960 में आई। राजकपूर ने ये फिल्म
चम्बल में डकैती की समस्या को लेकर बनाई थी जिस पर दरअसल भूदान आन्दोलन का भी
हल्का असर दिखाई देता है। अगर कथानक की दृष्टि से देखें तो राजकपूर डकैती को एक
सामजिक दृष्टीकोण से देख रहे थे और यह कि ऐसी समस्याओं का उत्तर मात्र बन्दूक या
दवाब से नहीं है। प्यार प्यार प्यार.। ये है फिल्म के नायक की विचारधारा। इसके गीत
इतने सशक्त हैं कि वे आज भी हमें एक नयी ऊर्जा देते हैं और हमें प्रेम सिखाते हैं।
इस फिल्म में राज कपूर एक ढपली वाले नायक दीखते हैं, इतने भोले कि उनके भोलेपन पर भी केवल प्यार आता है। फिल्म की शुरुआत ‘मेरा
नाम राजू, घराना, अनाम, बहती है गंगा, जहां मेरा धाम, बहुत कर्णप्रिय है लेकिन इस फिल्म का सबसे चर्चित और सशक्त गीत बना ‘होठों पे
सच्चाई रहती है, जहां दिल में सफाई रहती है, हम उस देश के बासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है। यह गीत इस फिल्म का थीम गीत भी है और मुकेश ने इसे
जिस मिठास से गया वो आज भी दिल के अन्दर सीधे प्रवेश करती है। इस फिल्म में एक
क्लासिक कव्वाली है जिसमें मुकेश, लता, शमशाद बेगम, मन्ना डे और एक दो और लोग गाते है। ‘हम आग से खेलते हैं, हम आग से खेलना जानते हैं’। यदि पूरा गीत ढंग से सुनेंगे तो
शैलेन्द्र के शब्द विन्यास को सलाम करना पड़ेगा। कमाल की भाषा, शब्दावली थी उनके पास।
इसी फिल्म में पद्मिनी पे
फिल्माया गया ‘ओ बसंती, पवन पागल, ना जा रे ना जा’ अपनी लोकेशन के कारण भी खूबसूरत दिखता है। लेकिन
शैलेन्द्र का इस फिल्म में अंतिम गीत सबसे अधिक छू लेने वाला है इसे मुकेश की आवाज
ने और भी अधिक दिलकश बना दिया।। ‘आ अब लौट चले, नैन बिछाए, बाहे पसारे, तुझको
पुकारे देश तेरा......
आँख हमारी मंजिल पर है,
दिल में ख़ुशी की मस्त लहर है,
लाख लुभाए महल पराये,
अपना घर तो अपना घर है.
शैलेन्द्र की ये पक्तियां उनके
जीवन का मूल है। आज के दौर में भी ये पक्तियां बहुत बड़ी बात कह रही हैं।
जिस देश में गंगा बहती है के
बाद राज कपूर ने रंगीन फिल्मों के दौर में प्रवेश किया और उनकी अगली फिल्म थी संगम
जिसमें उनके साथ राजेंद्र कुमार और वैजयन्ती माला ने काम किया। इस फिल्म के भी
बेहद सराहे गए। ‘दोस्त दोस्त न रहा, प्यार प्यार न रहा हो या हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गायेगा.. या मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमना को बोल राधा
बोल संगम होगा कि नहीं, लोगो ने बहुत पसंद किये। हालांकि इस फिल्म में
राजेंद्र कुमार पर फिल्माया और मोहम्मद रफ़ी का गाया ‘ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर, कि तुम नाराज न होना’, बिनाका गीत माला की सालाना लिस्टिंग में टॉप पर था। इसी फिल्म में राजकपूर पर
मुकेश का गाया गीत बेहद खूबसूरत है “ओह महबूबा, तेरे दिल के पास ही है मेरी मंजिले मक़सूद”।
राज कपूर के लिए शैलेन्द्र ने मेरा
नाम जोकर के लिए भी गीत लिखे और उनका लिखा ‘जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहा‘ बहुत लोकप्रिय हुआ। मेरा नाम जोकर राज कपूर की ‘आत्मकथा’ थी लेकिन इतने बड़े
पैमाने पर बनाई गयी इस फिल्म की असफलता ने राज कपूर को बहुत तोड़ दिया। इस फिल्म को
सभी ने पसंद किया लेकिन इसके सभी गीत सुपर हिट थे। जाने कहां गए वो दिन, ए भाई ज़रा देख के चलो, कहता है जोकर सारा ज़माना, आधी हकीकत आधा फसाना, आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं। राज कपूर के बेटे रंधीर कपूर कहते हैं कि आज के
दौर में मेरा नाम जोकर को बहुत अधिक देखा गया है और यदि राज कपूर जिन्दा होते तो
उन्हें ये बेहद अच्छा लगता।
राज कपूर ने धरम करम, बीवी ओ बीवी, कल आज और कल आदि फिल्मों का निर्माण भी किया और धीरे-धीरे अपने को अभिनय की
दुनिया से अलग कर दिया। मेरा नाम जोकर के बाद उन्हें पता चल गया कि फिल्म
अभिनेता के तौर पर अब उन्हें विदा ले लेना चाहिए और फिर उन्होंने अपने छोटे बेटे
ऋषि कपूर को लेकर बॉबी फिल्म बनाई जिसने बॉक्स ऑफिस पर सारे रिकॉर्ड तोड़
दिए। बाद की फिल्मों में सत्यम शिवम् सुन्दरम, प्रेम रोग और राम
तेरी गंगा मैली शामिल है। 1979 में मुकेश के निधन के बाद से ही उनकी फिल्मों
में अन्य गायक कलाकार आने लगे थे। जब मुकेश का निधन हुआ तो राज कपूर अवाक थे
उन्होंने कहा, ‘आज मेरी आवाज चली गयी है, मुकेश के बिना तो मैं मात्र हाड मांस का एक पुतला हूँ “.
शैलेन्द्र की अमर कृति तीसरी कसम
राज कपूर के कविराज शैलेन्द्र
को भी एक बार फिल्म बनाने की सूझी। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’
उन्हें इतनी पसंद आयी के उन्होंने राज कपूर को लेकर ‘तीसरी कसम’ बनाने का
निर्णय लिया। वहीदा रहमान इस फिल्म की हेरोइन थी और उन्होंने अपना किरदार बेहद
ख़ूबसूरती से निभाया लेकिन फिल्म दरअसल नायक हिरामन की इर्द गिर्द घूमती है जो एक
बैलगाड़ीवान है और बहुत भोला भाला है। राज कपूर ने एक ग्रामीण पृष्ठभूमि के भोले
भाले व्यक्ति की भूमिका बेहदरीन तरीके सेस निभाई। फिल्म का संगीत शंकर जय किशन का
था और इसमें गीत शैलेन्द्र के अलावा, हसरत जयपुरी और मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखे। इस फिल्म के सभी गीत क्लासिक है और
बहुत खूबसूरत है। मुकेश ने उन्हें जीवन्तता प्रदान कर दी। ‘दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनायी, सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, सजनवा बैरी हो गए हमार, मुकेश द्वारा एवं पान खाए सैंय्या हमार,( आशा भोंसले द्वारा) और चलत मुसाफिर मोह लिओ रे (
मन्ना दे द्वारा गाया ) सभी प्रचलित गीत बने।
1961 से इस फिल्म को बनाने में
शैलेन्द्र ने अपनी पूरी पूँजी लगा दी। फिल्म के बनने में बहुत देर हुई और अंत में 1966
तक यह फिल्म बनी। फिल्म के गीत संगीत को बहुत सराहा गया। फिल्म फिल्मफेयर
पुरूस्कार के लिए भी नामित हुई लेकिन बॉक्स ऑफिस पर पिट गयी। इस फिल्म को राष्ट्रीय
पुरूस्कार भी मिला लेकिन व्यावसायिक असफलता ने शैलेन्द्र को बेहद दुखी किया। फिल्म
में शैलेन्द्र ने अपनी विचारधारा से कोई समझौता नहीं किया। फिल्म के अंत को लेकर
कई सवाल थे और बहुत से लोगो ने फिल्म को अनिश्चित अंत के स्थान पर हिरामन और
हिराबाई के मिलन से करवा कर हैप्पी एंडिंग करने की बात कही थी, लेकिन शैलेन्द्र को
ऐसा मंज़ूर नहीं था क्योंकि वो इसे लीक से हटकर बनाना चाहते थे। उन्होंने जो किया
वो आज की भी हकीकत होता है जैसे कई बार जिसे हम चाहते हैं और लगता है चाहत बहुत
नजदीक है लेकिन वो कभी मिल नहीं पाती। दोनों की सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियां
अलग-अलग होती हैं। तो निर्माता ने इसे वैसे ही छोड़ दिया, लोगो को सोचने पर मजबूर किया लेकिन जहां लोग सोचना नहीं
चाहते तो वहां ऐसी अनिश्चितता व्यावासयिक सिनेमा के लिए नुक्सानवर्धक होती है और
वो ही हुआ।
14 दिसंबर 1966 को जब राज कपूर
अपना 42 वां जन्मदिन मना रहे थे तो उन्हें बेहद मनहूस खबर मिली। उनके कविराज
शैलेन्द्र ने 43 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया। राजकपूर ने शैलेन्द्र
को याद करते हुए फिल्म फेयर पत्रिका में एक श्रधांजलि लिखी :
“मेरी आत्मा का
एक हिस्सा चला गया है। ये ठीक नहीं है। मैं अपने बगीचे के सबसे खूबसूरत गुलाबो में
से एक के चले जाने पर टूट जाता हूँ, रोता हूँ। वो मेरे होने का एक बड़ा हिस्सा था। कितना ईमानदार
और स्वार्थरहित इन्सान था वो। अब वो चला गया है और मेरे पास सिवाय उसको याद करने
और रोने के और कुछ नहीं बचा है।“
आखिर आम आदमी की ईमानदारी को
प्रस्तुत करता उनका ये कथन “कुछ लोग जो ज्यादा जानते है, इंसान को कम पहचानते है, ये पूरब है पूरब वाले हर बात की कीमत जानते हैं, मिल जुल के रहो और प्यार करो, एक चीज यही जो रहती है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है।
राज कपूर ये कहते हैं कि यदि
शैलेन्द्र न होते तो उनकी आमजन का प्रतिनिधित्व करनेवाली इमेज नहीं बनती। ये
शैलेन्द्र की कविताएं हैं जिसने राज कपूर को दुनिया में अभूतपूर्व तरीके से
लोकप्रिय बनाया।
ये सब कहने के लिए जिगर, जज्बा और ईमानदारी होनी चाहिए। राज कपूर में वो जूनून था, वो ईमानदारी थी जिसने उन्हें शैलेन्द्र जैसे महाकवि को
सिनेमा में इतने बेहतरीन गाने बनाने को प्रेरित किया या उनसे प्रेरणा ली। भारतीय
सिनेमा के इतिहास में इतने बड़े क्रिएटिव लोग एक साथ और पूरी तरह से एक दूसरे को
समर्पित लोग नहीं मिलेंगे। अपने सभी संगी साथियों को अपनी और अपनी फिल्मों की
सफलता का श्रेय केवल राजकपूर ही कर सकते थे। राज कपूर ने दिखाया कि एक अच्छे
सिनेमा के लिए अच्छे लोगो का साथ होना कितना जरुरी है। फिल्मों में नायकों के इर्द
गिर्द बातों को बढाने का प्रचलन शुरू हो चुका है जहां नायक ही सब कुछ है। आज के
दौर में क्या हम अपने लेखकों, संगीतकारों और
अन्य कलाकारों को कितना क्रेडिट देते है ? हकीकत यही कि राज-कपूर आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े हीरो हैं और मैं
उन्हें हीरो बिलकुल उस सन्दर्भ में कह रहा हूँ जहां एक कलाकार अपनी सफलताओं में
अपने हरेक साथी के योगदान को खुले दिल से स्वीकारता है। राज कपूर, शैलेन्द्र-मुकेश एक अविभाज्य कॉम्बिनेशन था जिसने भारतीय
सिनेमा को एक नयी मानववादी मूल्यों की एक नयी संस्कृति दी, समाजवादी चिंतन दिया और हमें केवल भाग्य और भगवान् के भरोसे
नहीं छोड़ा। राज कपूर और उनके कविराज शैलेन्द्र को हमारा सलाम।
‘तू ज़िंदा है तो जिन्दगी की जीत
पे यकीं कर,
अगर कही है स्वर्ग तो उतार ला
जमीन पर..
ये गम के और चार दिन,
सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जायेंगे गुजर,
गुजर गए हज़ार दिन..
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