अन्ना हजारे, सिविल सोसायटी और जनलोकपाल बिल: नवनीत का विश्लेषण

इस लेख में स्वतंत्र टिप्पणीकार नवनीत ने अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन और सिविल सोसायटी की भूमिका (Anna Hazare's Jan Lokpal movement and the role of civil society) पर गहराई से चर्चा की है। अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक महत्वपूर्ण आंदोलन का नेतृत्व किया था, लेकिन क्या उनके आंदोलन के अनछुए पहलू भी हैं? जानिए क्या अन्ना की टीम वास्तव में सिविल सोसायटी का प्रतिनिधित्व करती है और क्या उनका आंदोलन सरकार के लिए एक सहूलियत साबित हुआ है? इस विश्लेषण में, नवनीत अन्ना हजारे के आंदोलन की प्रभावशीलता, इसके राजनीतिक पहलू और समाज में इसके प्रभाव पर प्रकाश डालते हैं---
अन्ना हजारे, सिविल सोसायटी और जनलोकपाल बिल: नवनीत का विश्लेषण


अन्ना हजारे, सिविल सोसायटी व जनलोकपाल बिल पर एक नज़र


नवनीत

आज सम्पूर्ण भारत में एक बात राजनीति का का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है लोकपाल बिल। अन्ना हजारे देश की हीरो बन चुके हैं। लेकिन जिस प्रकार सिक्के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार हमें सिर्फ अन्ना व उनकी टीम के एक पहलू को नहीं देखना चाहिए कि सब अच्छा ही अच्छा है। निश्चित तौर अन्ना का आन्दोलन अत्यन्त महत्वपूर्ण है, लेकिन इसमें कई सवाल ऐसे हैं, जिनका उत्तर ढूंढ़ा जाना चाहिए। आज हम और हमारा समाज भ्रष्टाचार के दलदल में धंसा हुआ है और अन्ना हजारे इससे तारनहार के रूप में उभर कर सामने आये हैं तो यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि इस आन्दोलन के अनछुए पहलुओं पर कुछ प्रकाश डाला जाए।

निम्नलिखित प्रश्नों के आधार पर अन्ना व उनकी टीम की समीक्षा करने का प्रयास किया जा सकता है।

1. क्या सिर्फ अन्ना व उनकी टीम सिविल सोसायटी का चेहरा है ?

2. क्या अन्ना अनजाने में या जान बूझ कर सरकार की राह तो आसान नहीं कर रहे हैं और इस आन्दोलन का भविष्य क्या है?

3. कभी अन्ना जनप्रतिनिधियों व राजनीतिक पार्टियों को अपने आस-पास तक नहीं फटकने देते हैं तो कभी स्वयं ही उनके दरबार में पहुंच जाते हैं।

4. क्या देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी सड़-गल चुकी है कि अन्ना व उनकी टीम ही इसकी संजीवनी है?

5. अगर भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके साथ आता है तो उसे सांप्रदायिकता व विचार के रंग में रंग कर क्यों देखा जाता है?

पहला सवाल अपने आप अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि क्या सिर्फ अन्ना व उनकी टीम ही सिविल सोसायटी है।

अन्ना हजारे की टीम में अरविंद केजीरीवाल, किरण बेदी, प्रशान्त भूषण व उनके पिता शांति भूषण प्रमुखता से दिखाई पड़ते हैं। क्या ये लोग एक अरब आम जान का प्रतिनिधित्व करते हैं, ये सोचने का विषय है।

क्या टीम अन्ना सिविल सोसायटी है ?


अभी भारत में ऐसी स्थिति नहीं आई है कि कोई भी अपने आप को सिविल सोसायटी होने का दावा कर सके। सिविल सोसायटी सम्पूर्ण समाज का प्रतिबिंब होती है समाज से जोड़े तमान वर्गो को मिला कर सिविल सोसायटी का स्वरुप तैयार होता है लेकिन अन्ना हजारे की सिविल सोसायटी में इसका अभाव दिखता है अन्ना व उनकी टीम को किसी भी रूप में सिविल सोसायटी तो नहीं कहा जा सकता है।

दूसरा सवाल है कि क्या अन्ना का आन्दोलन सरकार का राह आसान तो नहीं कर रहे, या कहें अनजाने में अन्ना व उनकी टीम सरकार के लिए सेप्टी बॉल का काम तो नहीं कर रही है।

जब अन्ना ने जंतर-मंतर पर अनशन शुरू किया था तो सम्पूर्ण देश अन्ना के पीछे चल पड़ा था और लग रहा था कि फिर देश को 1974 का दौर देखने को मिलेगा, क्या बच्चे क्या बूढे सभी अन्ना के पीछे खड़े थे, सरकार बुरी तरह डरी हुई थी लेकिन अचानक भ्रष्टाचार के खिलाफ यह आन्दोलन खत्म हो जाता है क्योंकि सरकार अन्ना की जन लोकपाल बिल की मांग को मान लेती है और अन्ना अपना अनशन तोड़ देते हैं। सभी अपनी जीत की खुशी मनाकर घर चले जाते हैं पर स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है।

कहने का तात्पर्य है कि सिर्फ लोकपाल बिल को ही मुद्दा बनाकर यह आन्दोलन कब तक चल सकता था, जन लोकपाल बिल एक मांग तो हो सकती थी, लेकिन मात्र एक मांग नहीं। अन्ना को कालेधन, भ्रष्टाचार को भी आन्दोलन के मुद्दो में प्रमुखता से शामिल करना चाहिए था।

अगर अन्ना ने ऐसा किया होता तो 4 जून की घटना पहले ही घट गई होती। सरकार के लिए ये बड़ा आसान था कि वह उनकी मात्र इस मांग को मानकर आम जन के गुस्से को शांत कर दे। अन्ना को जे.पी की तरह सत्ता परिर्वतन के साथ व्यवस्था परिर्वता की राह पर चलना चाहिए था।

तीसरा सवाल दिलचस्प है। जब अन्ना ने जंतर-मंतर अपना अनशन किया था तो उन्होने अपने मंच पर किसी भी राजनैतिक पार्टी या जनप्रतिनिधि, जिसे जनता ने चुनकर कर भेजा है, नहीं आने दिया उनके लिए सभी राजनैतिक पार्टियां अछूत हो गई थीं।

लेकिन फिर क्या जरूरत आन पड़ी कि अन्ना व उनकी टीम को उन्हीं लोगों के पास मिलने व लोकपाल पर चर्चा करने के लिए जाना पड़ा। अब उन्हें कैसे लगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की भी कहीं कोई भूमिका होती है। ये बात अन्ना को पहले ही समझ लेना चाहिए था कि अन्ना जिस गांधी जी के अनुयायी है वह सभी को साथ लेकर चलने में विश्वास करते थे।

आखिर क्या देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी सड़-गल चुकी है कि मात्र अन्ना की सिविल सोयायटी ही इसकी संजीवनी है। क्या विपक्ष पूर्णतः पंगु हो चुका है कि वह अपने दायित्व का पालन नहीं कर सकता है। व्यवस्था का जितना भयावह रूप अन्ना टीम ने दिखाने का प्रयास किया है उतनी बुरी स्थिति अभी नहीं आई है। अन्ना को चाहिए कि वह संपूर्ण विपक्ष को साथ लेकर चलें।

अन्ना व उनकी टीम भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके साथ खड़े होने वाले को सांप्रदायिकता के तराजू में तौल कर क्यों देखती है। उनके लिए संघ विचारधारा या संघ से जुड़ा हुआ व्यक्ति अछूत हो जाता है। ये अन्ना की टीम का कौन सा मापदंड है कि जो राम देव को शर्तों के आधार पर मंच पर आने के लिए कहती है। इस प्रकार से अन्ना व उनकी टीम सरकार का ही हाथ मजबूत करने का काम कर रही है।

अन्ना को चाहिए कि वह समाज के सभी वर्गों व विचारों, जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध है, साथ लेकर चलें।

इन सब के अलावा भी अन्ना की टीम की आलोचना की गई चाहे व प्रशान्त भूषण व उनके पिता की सम्पति विवाद हो या दोनों पिता-पुत्र को शामिल किया जाना हो। सवालों के घेरे में अन्ना भी आये, उनकी मंशा पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया गया।

यह सही है कि सशक्त जन लोकपाल भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में कारगर सिद्ध होगा, लेकिन इसके लिए आवश्यकता मजबूत राजनैतिक इच्छा शक्ति की, समाज के तमान वर्गों को साथ में लेकर चलने की है न कि किसी को अछूत समझने की।

इन सभी के बाद भी अन्ना हजारे का योगदान समाज के लिए अतुलनीय है। बस आवश्यकता है कि अन्ना की टीम समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चले ताकि भारत को भ्रष्टाचार के दलदल से बाहर निकाला जा सके व भविष्य में इस पर लगाम भी लगाया जा सके।

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। यह लेख मूलतः हस्तक्षेप डॉट कॉम पर 06 जुलाई 2011 को प्रकाशित हुआ था

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Amalendu Upadhyaya
वेबसाइट संचालक अमलेन्दु उपाध्याय 30 वर्ष से अधिक अनुभव वाले वरिष्ठ पत्रकार और जाने माने राजनैतिक विश्लेषक हैं। वह पर्यावरण, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, युवा, खेल, कानून, स्वास्थ्य, समसामयिकी, राजनीति इत्यादि पर लिखते रहे हैं।